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अद॑र्द॒रुत्स॒मसृ॑जो॒ वि खानि॒ त्वम॑र्ण॒वान्ब॑द्बधा॒नाँ अ॑रम्णाः। म॒हान्त॑मिन्द्र॒ पर्व॑तं॒ वि यद्वः सृ॒जो वि धारा॒ अव॑ दान॒वं ह॑न् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adardar utsam asṛjo vi khāni tvam arṇavān badbadhānām̐ aramṇāḥ | mahāntam indra parvataṁ vi yad vaḥ sṛjo vi dhārā ava dānavaṁ han ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अद॑र्दः। उत्स॑म्। असृ॑जः। वि। खानि॑। त्वम्। अ॒र्ण॒वान्। ब॒द्ब॒धा॒नान्। अ॒र॒म्णाः॒। म॒हान्त॑म्। इ॒न्द्र॒। पर्व॑तम्। वि। यत्। व॒रिति॑ वः। सृ॒जः। वि। धाराः॑। अव॑। दा॒न॒वम्। ह॒न्निति॑ हन् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:32» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:32» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब बारह ऋचावाले बत्तीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्रपदवाच्य राजगुणों को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) शत्रुओं के नाश करनेवाले राजन् ! जिस प्रकार सूर्य्य (उत्सम्) कूप के समान (महान्तम्) बड़े (पर्वतम्) पर्वताकार मेघ का नाश करके (बद्बधानान्) अत्यन्त बंधे हुओं को (अदर्दः) नाश कता है और (अर्णवान्) नदियों वा समुद्रों का (सृजः) त्याग करता है, वैसे (त्वम्) आप (खानि) इन्द्रियों को (वि) विशेष करके त्याग कीजिये और हम लोगों का (वि, अरम्णाः) विशेष रमण कराइये और (यत्) जो सूर्य्य (धाराः) जल के प्रवाहों के सदृश वाणियों का और (दानवम्) दुष्ट जन का (अव, हन्) नाश करता है (वः) आप लोगों के लिये (वि, असृजः) विशेषकर त्यागता अर्थात् जलादि का त्याग करता है, उसका सत्कार प्रशंसा उत्तम किया कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । राजा जैसे सूर्य्य गिराये हुए मेघ से नदी और समुद्र आदिकों को पूर्ण करता और तटों को तोड़ता है, वैसे ही अन्याय को गिरा और न्याय से प्रजा का पालन करके दुष्टों का नाश करें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रगुणानाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यथा सूर्य उत्समिव महान्तं पर्वतं हत्वा बद्बधानानदर्दोऽर्णवान् सृजस्तथा त्वं खानि वि सृजास्मान् व्यरम्णा यद्यः सूर्य्यो धारा इव दानवमव हन् वो व्यसृजस्तं सत्कुरु ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अदर्दः) विदृणाति (उत्सम्) कूपमिव (असृजः) सृजति (वि) (खानि) इन्द्रियाणि (त्वम्) (अर्णवान्) नदीः समुद्रान् वा (बद्बधानान्) प्रबद्धान् (अरम्णाः) रमय (महान्तम्) (इन्द्र) शत्रूणां दारयिता राजन् (पर्वतम्) पर्वताकारं मेघम् (वि) (यत्) यः (वः) युष्मभ्यम् (सृजः) सृजति (वि) (धाराः) जलप्रवाहा इव वाचः (अव) (दानवम्) दुष्टजनम् (हन्) सन्ति ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजा यथा सूर्य्यो निपातितमेघेन नदीसमुद्रादीन् पिपर्ति कूलानि विदारयति तथैवाऽन्यायं निपात्य न्यायेन प्रजाः प्रपूर्य दुष्टाञ्छिन्द्यात् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र व विद्वानाच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य मेघांद्वारे नदी व समुद्र इत्यादींना जलयुक्त करतो तसे राजाने अन्यायाचा नाश करून न्यायाने प्रजेचे पालन करून दुष्टांचा नाश करावा. ॥ १ ॥